Tuesday, April 14, 2020

8th14पाठ

Our Past -3

चतुर्दशः पाठः

आर्यभटः



[भारतवर्ष की अमूल्य निधि है ज्ञान-विज्ञान की सुदीर्घ परम्परा। इस परम्परा को सम्पोषित किया प्रबुद्ध मनीषियों ने। इन्हीं मनीषियों में अग्रगण्य थे आर्यभट। दशमलव पद्धति आदि के प्रारम्भिक प्रयोक्ता आर्यभट ने गणित को नयी दिशा दी। इन्हें एवं इनके प्रवर्तित सिद्धान्तों को तत्कालीन रूढिवादियों का विरोध झेलना पड़ा। वस्तुतः गणित को विज्ञान बनाने वाले तथा गणितीय गणना पद्धति के द्वारा आकाशीय पिण्डों की गति का प्रवर्तन करने वाले ये प्रथम आचार्य थे। आचार्य आर्यभट के इसी वैदुष्य का उद्घाटन प्रस्तुत पाठ में है।]

पूर्वदिशायाम् उदेति सूर्यः पश्चिमदिशायां च अस्तं गच्छति इति दृश्यते हि लोके। परं न अनेन अवबोध्यमस्ति यत्सूर्यो गतिशील इति। सूर्योऽचलः पृथिवी च चला या स्वकीये अक्षे घूर्णति इति साम्प्रतं सुस्थापितः सिद्धान्तः। सिद्धान्तोऽयं प्राथम्येन येन प्रवर्तितः, स आसीत् महान् गणितज्ञः ज्योतिर्विच्च आर्यभटः। पृथिवी स्थिरा वर्तते इति परम्परया प्रचलिता रूढिः तेन प्रत्यादिष्टा। तेन उदाहृतं यद् गतिशीलायां नौकायाम् उपविष्टः मानवः नौकां स्थिरामनुभवति, अन्यान् च पदार्थान् गतिशीलान् अवगच्छति। एवमेव गतिशीलायां पृथिव्याम् अवस्थितः मानवः पृथिवीं स्थिरामनुभवति सूर्यादिग्रहान् च गतिशीलान् वेत्ति।

476 तमे ख्रिस्ताब्दे (षट्सप्तत्यधिकचतुःशततमे वर्षे) आर्यभटः जन्म लब्धवानिति तेनैव विरचिते ‘आर्यभटीयम्’ इत्यस्मिन् ग्रन्थे उल्लिखितम्। ग्रन्थोऽयं तेन त्रयोविंशतितमे वयसि विरचितः। एेतिहासिकस्रोतोभिः ज्ञायते यत् पाटलिपुत्रं निकषा आर्यभटस्य वेधशाला आसीत्। अनेन इदम् अनुमीयते यत् तस्य कर्मभूमिः पाटलिपुत्रमेव आसीत्।

आर्यभटस्य योगदानं गणितज्योतिषा सम्बद्धं वर्तते यत्र संख्यानाम् आकलनं महत्त्वम् आदधाति। आर्यभटः फलितज्योतिषशास्त्रे न विश्वसिति स्म। गणितीयपद्धत्या कृतम् आकलनमाधृत्य एव तेन प्रतिपादितं यद् ग्रहणे राहु- केतुनामकौ दानवौ नास्ति कारणम्। तत्र तु सूर्यचन्द्रपृथिवी इति त्रीणि एव कारणानि। सूर्यं परितः भ्रमन्त्याः पृथिव्याः, चन्द्रस्य परिक्रमापथेन संयोगाद् ग्रहणं भवति। यदा पृथिव्याः छायापातेन चन्द्रस्य प्रकाशः अवरुध्यते तदा चन्द्रग्रहणं भवति। तथैव पृथ्वीसूर्ययोः मध्ये समागतस्य चन्द्रस्य छायापातेन सूर्यग्रहणं दृश्यते।

समाजे नूतनानां विचाराणां स्वीकरणे प्रायः सामान्यजनाः काठिन्यमनुभवन्ति। भारतीयज्योतिःशास्त्रे तथैव आर्यभटस्यापि विरोधः अभवत्। तस्य सिद्धान्ताः उपेक्षिताः। स पण्डितम्मन्यानाम् उपहासपात्रं जातः। पुनरपि तस्य दृष्टिः कालातिगामिनी दृष्टा। 

आधुनिकैः वैज्ञानिकैः तस्मिन्, तस्य च सिद्धान्ते समादरः प्रकटितः। अस्मादेव कारणाद् अस्माकं प्रथमोपग्रहस्य नाम आर्यभट इति कृतम्।
वस्तुतः भारतीयायाः गणितपरम्परायाः अथ च विज्ञानपरम्परायाः असौ एकः शिखरपुरुषः आसीत्।

सूयपूविदशा मउदय  होता हैऔर पिम िदशा मअ होता है। संसार मऐसा ही देखा जाता है। परुइससेयह नहींजानना चािहए िक सूयगितशील है। सूय थर हैऔर पृी गितशील हैअथवा अपनेअ पर घूमती है। यह अब थािपत िसांत है। यह िसांत सबसेपहलेिजसनेिदया, वह थेमहान गिणत ोितिवद आयभट। पृिथवी थर हैइस पररा सेचिलत िढ़ का उसनेखंडन िकया। उोनं ेउदाहरण िदया िक गितशील नाव मबैठा आ मनु नाँव को थर अनुभव करता हैऔर दूसरेपदाथ को गितशील समझता है। ठीक इसी कार गितशील पृी मथत मानव पृी को थर मानतेहऔर सूयािद होंको गितशील मानतेह। 476 ईी मआयभट का ज आ। उनके ारा रिचत ' आयभटीयम्' इस मऐसा वणन िकया है। यह उोनं े 23 वषकी आयुमिलखा। ऐितहािसक ोतोंसेपता चलता हैिक पाटली पु के िनकट आयभट की वेधशाला थी। इससेयह अनुमान लगातेहिक उनकी कमभूिम पाटली पु थी। गिणत, ोितष के संबधंमसंाओंका आकलन करनेमआयभट का महपूणयोगदान है। आयभट फिलत ोितष मिवास नहींकरतेथे। गिणतपित के आधार पर उोनं ेितपािदत िकया िक हण का कारण रा केतुनामक दानव नहींह। सूय, च तथा पृी येतीन कारण ह। सूयके चारोंतरफ़ घूमती ई पृी के व चमा के परमा पथ सेसंयोग होनेके कारण हण होता है। जब पृी की छाया सेचमा का काश बािधत हो जाता हैतब चहण होता है। उसी कार पृी और सुयके म चमा की छाया पड़नेसेसूयहण िदखाई देता है। समाज मनए िवचारोंको ीकार करनेमाय: आम जनोंको किठनाई होती है। भारतीय ोितष शा मवैसेही आयभट का िवरोध िकया गया। उनके िसाोंकी उपेा की गई। वेपतोंमउपहास के पा बने। िफर भी उनकी ि समय को लाँघनेवाली तीत ई। आधुिनक वैािनकोंनेउनके िसाोंको सादर ीकार िकया। इस कारण ही हमारेथम उपह का नाम आयभट रखा गया। सही मायनोंमवह भारतीय गिणत पररा और िवान पररा के एक िशखर पुष थे। 

शब्दार्थाः

लोके  - संसार में
अवबोध्यम्  - समझने योग्य, जानने योग्य, जानना चाहिए
अचलः - स्थिर, गतिहीन
चला - अस्थिर, गतिशील
स्वकीये - अपने
अक्षे - धुरी पर
घूर्णति - घूमती है
सुस्थापितः - भली-भाँति स्थापित
प्राथम्येन - सर्वप्रथम
ज्योतिर्विद्  - ज्योतिषी
रूढिः - प्रचलित प्रथा, रिवाज
प्रत्यादिष्टा (प्रति+आदिष्टा) - खण्डन किया
ख्रिस्ताब्दे (ख्रिस्त+अब्दे) - ईस्वी में
षट्सप्ततिः - छिहत्तर
वयसि - आयु में, अवस्था में, उम्र में
निकषा - निकट
वेधशाला - ग्रह, नक्षत्रों को जानने की प्रयोगशाला
आकलनम् - गणना
आदधाति - रखता है
भ्रमन्त्याः - घूमने वाली की, घूमती हुई की
छायापातेन - छाया पड़ने से
अवरुध्यते - रुक जाता है
अपरत्र - दूसरी ओर
अवस्थितः - स्थित
विश्वसिति स्म - विश्वास करता था
प्रतिरोधस्य - रोकने का
पण्डितम्मन्यानाम् - स्वयं को भारी विद्वान् मानने वालों का
कालातिगामिनी - समय को लाँघने वाली

अभ्यासः

1. एकपदेन उत्तरत-

(क) सूर्यः कस्यां दिशायाम् उदेति?
(ख) आर्यभटस्य वेधशाला कुत्र आसीत्?
(ग) महान् गणितज्ञः ज्योतिर्विच्च कः अस्ति?
(घ) आर्यभटेन कः ग्रन्थः रचितः?
(ङ) अस्माकं प्रथमोपग्रहस्य नाम किम् अस्ति?

2. पूर्णवाक्येन उत्तरत -

(क) कः सुस्थापितः सिद्धान्तः?
(ख) चन्द्रग्रहणं कथं भवति?
(ग) सूर्यग्रहणं कथं दृश्यते?
(घ) आर्यभटस्य विरोधः किमर्थमभवत्?
(ङ) प्रथमोपग्रहस्य नाम आर्यभटः इति कथं कृतम्?

3. रेखाङ्कितपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत -

(क) सूर्यः पश्चिमायां दिशायाम् अस्तं गच्छति?
(ख) पृथिवी स्थिरा वर्तते इति परम्परया प्रचलिता रूढिः?
(ग) आर्यभटस्य योगदानं गणितज्योतिष-सम्बद्धं वर्तते?
(घ) समाजे नूतनविचाराणां स्वीकरणे प्रायः सामान्यजनाः काठिन्यमनुभवन्ति?
(ङ) पृथ्वीसूर्ययोः मध्ये चन्द्रस्य छाया पातेन सूर्य-ग्रहणं भवति?

4. मञ्जूषातः पदानि चित्वा रिक्तस्थानानि पूरयत-

नौकाम् पृथिवी तदा चला अस्तं
(क) सूर्यः पूर्वदिशायाम् उदेति पश्चिमदिशायां च ................... गच्छति।
(ख) सूर्यः अचलः पृथिवी च ...................।
(ग) ............. स्वकीये अक्षे घूर्णति।
(घ) यदा पृथिव्याः छायापातेन चन्द्रस्य प्रकाशः अवरुध्यते ................... चन्द्रग्रहणं भवति।
(ङ) नौकायाम् उपविष्टः मानवः ................... स्थिरामनुभवति।

5. सन्धिविच्छेदं कुरुत-

ग्रन्थोऽयम् - ................... + ...................
सूर्याचलः - ................... + ...................
तथैव  - ................... + ...................
कालातिगामिनी - ................... + ...................
प्रथमोपग्रहस्य - ................... + ...................

6. (अ) अधोलिखितपदानां विपरीतार्थकपदानि लिखत-

उदयः ...................
अचलः ...................
अन्धकारः ...................
स्थिरः ...................
समादरः ...................
आकाशस्य ...................

(आ) अधोलिखितपदानां समानार्थकपदानि पाठात् चित्वा लिखत-

संसारे ...................
इदानीम् ...................
वसुन्धरा ...................
समीपम् ...................
गणनम् ...................
राक्षसौ ...................

7. अधोलिखितानि पदानि आधृत्य वाक्यानि रचयत-

साम्प्रतम् - ............................................................................
निकषा - ............................................................................
परितः - ............................................................................
उपविष्टः - ............................................................................
कर्मभूमिः - ............................................................................
वैज्ञानिकः - ............................................................................

योग्यता-विस्तारः

आर्यभट को अश्मकाचार्य नाम से भी जाना जाता है। यही कारण है कि इनके जन्मस्थान के विषय में विवाद है। कोई इन्हें पाटलिपुत्र का कहते हैं तो कोई महाराष्ट्र का।

आर्यभट ने दशमलव पद्धति का प्रयोग करते हुए π (पाई) का मान निर्धारित किया। इन्होंने दशमलव के बाद के चार अंकों तक π के मान को निकाला। इनकी दृष्टि में π का मान है 3.1416 । आधुनिक गणित में π का मान, दशमलव के बाद सात अंकों तक जाना जा सका है, तद्नुसार π = 3.1416926 ।

भारतीयज्योतिषशास्त्र –वैदिक युग में यज्ञ के काल अर्थात् शुभ मुहूर्त के ज्ञान के लिए ज्योतिषशास्त्र का उद्भव हुआ। कालान्तर में इसके अन्तर्गत ग्रहों का संचार, वर्ष, मास, पक्ष, वार, तिथि, घंटा आदि पर गहन विचार किया जाने लगा। लगध, आर्यभट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य, बालगंगाधर तिलक, रामानुजन् आदि हमारे देश के प्रमुख ज्योतिषशास्त्री हैं। आर्यभटीयम्, सौरसिद्धान्तः, बृहत्संहिता, लीलावती, पञ्चसिद्धान्तिका आदि ज्योतिष के प्रमुख संस्कृत ग्रन्थ हैं।

आर्यभटीयम् –आर्यभट ने 499 ई. में इस ग्रन्थ की रचना की थी। यह ग्रन्थ 20 आर्याछन्दों में निबद्ध है। इसमें ग्रहों की गणना के लिए कलि संवत् (499 ई. में 3600 कलि संवत्) को निश्चित किया गया है।

गणितज्योतिष –संख्या के द्वारा जहाँ काल की गणना हो, वह गणितज्योतिष है। ज्योतिषशास्त्र की तीन विधाओं यथा–सिद्धान्त, फलित एवं गणित में यह सर्वाधिक प्रमुख है।

फलितज्योतिष –इसके अन्तर्गत ग्रह नक्षत्रों आदि की स्थिति के आधार पर भाग्य, कर्म आदि का विवेचन किया जाता है।

वेधशाला –ग्रह, नक्षत्र आदि की गति, स्थिति की जानकारी जहाँ गणना तथा यान्त्रिक विधि के आधार पर ली जाये वह वेधशाला है। यथा-जन्तर-मन्तर।

परियोजना-कार्यम्

*  योग्यता विस्तार में उल्लिखित विद्वानों की कृतियों के नाम का सङ्कलन करें।
* योग्यता विस्तार में उद्धृत पुस्तकों के लेखक का नाम बताएँ।
* आर्यभट के अतिरिक्त कुछ अन्य गणितज्ञों के नाम तथा उनके कार्यों की सूची तैयार करें।

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