8 वीं कक्षा द्वितीयापाठबिलस्य वाणी न कदापि मे श्रुता
[प्रस्तुत पाठ संस्कृत के प्रसिद्ध कथाग्रन्थ ‘पञ्चतन्त्रम्’ के तृतीय तन्त्र ‘काकोलूकीयम्’ से संकलित है। पञ्चतन्त्र के मूल लेखक विष्णुशर्मा हैं। इसमें पाँच खण्ड हैं जिन्हें
‘तन्त्र’ कहा गया है। इनमें गद्य-पद्य रूप में कथाएँ दी गयी हैं जिनके पात्र मुख्यतः
पशु-पक्षी हैं।]
कसि्ंमश्चित् वने खरनखरः नाम सिंहः प्रतिवसति स्म। सः कदाचित् इतस्ततः परिभ्रमन् क्षुधार्तः न किञ्चिदपि आहारं प्राप्तवान्। ततः सूर्यास्तसमये एकां महतीं गुहां दृष्ट्वा सः अचिन्तयत्-"नूनम् एतस्यां गुहायां रात्रौ कोऽपि
जीवः आगच्छति। अतः अत्रैव निगूढो भूत्वा तिष्ठामि" इति।
सरलार्थ- किसी वन में खरनखर कर नाम का शेर रहता था। वह कभी इधर-उधर घूमता हुआ भूख से व्याकुल हो कर होने लगा और उसे कहीं भी भोजन प्राप्त नहीं हुआ तब सूर्यास्त के समय एक बड़ी सी गुफा देखी सोचने लगा अवश्य ही कोई रात को जीव आता होगा और इस गुफा में आता होगा इसलिए यहीं ठहर जाता हूं।
सरलार्थ- किसी वन में खरनखर कर नाम का शेर रहता था। वह कभी इधर-उधर घूमता हुआ भूख से व्याकुल हो कर होने लगा और उसे कहीं भी भोजन प्राप्त नहीं हुआ तब सूर्यास्त के समय एक बड़ी सी गुफा देखी सोचने लगा अवश्य ही कोई रात को जीव आता होगा और इस गुफा में आता होगा इसलिए यहीं ठहर जाता हूं।
एतस्मिन् अन्तरे गुहायाः स्वामी दधिपुच्छः नामकः शृगालः समागच्छत्। स च यावत् पश्यति तावत् सिंहपदपद्धतिः गुहायां प्रविष्टा दृश्यते, न च बहिरागता। शृगालः अचिन्तयत्-"अहो विनष्टोऽस्मि। नूनम् अस्मिन् बिले सिंहः अस्तीति तर्कयामि। तत् किं करवाणि?" एवं विचिन्त्य दूरस्थः रवं कर्तुमारब्धः-"भो बिल! भो बिल!
सरलार्थ- इसी बीच गुफा का स्वामी यदि दधिपूछ नामक सियार वहां आता है और वह देखता है कि शेर के पैरों के निशान गुफा में प्रविष्ट तो है लेकिन बाहर की ओर नहीं है सियार सोचता है अरे मैं नष्ट हो गया अवश्य ही बिल में कोई शेर है ऐसा मेरा तर्क है क्या करूं ऐसा विचार करके दूर से ही बोलना आरंभ किया वह बिल अरे बिल अरे बिल।
किं न स्मरसि, यन्मया त्वया सह समयः कृतोऽस्ति यत् यदाहं बाह्यतः प्रत्यागमिष्यामि तदा त्वं माम् आकारयिष्यसि? यदि त्वं मां न आह्वयसि तर्हि अहं द्वितीयं बिलं यास्यामि इति।"
सरलार्थ- क्या तुम्हें याद नहीं है कि तुमने मेरे साथ एक वादा किया था कि जब मैं बाहर से आऊंगा तो तुम मेरा स्वागत करोगे यदि तुम मेरा आवाज नहीं करते हो तो मैं दूसरे बिल में चला जाऊंगा।
सरलार्थ- इसी बीच गुफा का स्वामी यदि दधिपूछ नामक सियार वहां आता है और वह देखता है कि शेर के पैरों के निशान गुफा में प्रविष्ट तो है लेकिन बाहर की ओर नहीं है सियार सोचता है अरे मैं नष्ट हो गया अवश्य ही बिल में कोई शेर है ऐसा मेरा तर्क है क्या करूं ऐसा विचार करके दूर से ही बोलना आरंभ किया वह बिल अरे बिल अरे बिल।
किं न स्मरसि, यन्मया त्वया सह समयः कृतोऽस्ति यत् यदाहं बाह्यतः प्रत्यागमिष्यामि तदा त्वं माम् आकारयिष्यसि? यदि त्वं मां न आह्वयसि तर्हि अहं द्वितीयं बिलं यास्यामि इति।"
सरलार्थ- क्या तुम्हें याद नहीं है कि तुमने मेरे साथ एक वादा किया था कि जब मैं बाहर से आऊंगा तो तुम मेरा स्वागत करोगे यदि तुम मेरा आवाज नहीं करते हो तो मैं दूसरे बिल में चला जाऊंगा।
अथ एतच्छ्रुत्वा सिंहः अचिन्तयत्-"नूनमेषा गुहा स्वामिनः सदा समाह्वानं करोति। परन्तु मद्भयात् न किञ्चित् वदति।"
अथवा साध्विदम् उच्यते-
सरलार्थ ऐसा सुनकर से सोचने लगा अवश्य ही यह गुफा अपने स्वामी का आव्हान करती होगी । संतु मेरे भाई से कुछ भी नहीं बोल रही है इसलिए कहा भी गया है-
सरलार्थ ऐसा सुनकर से सोचने लगा अवश्य ही यह गुफा अपने स्वामी का आव्हान करती होगी । संतु मेरे भाई से कुछ भी नहीं बोल रही है इसलिए कहा भी गया है-
भयसन्त्रस्तमनसां हस्तपादादिकाः क्रियाः।
प्रवर्तन्ते न वाणी च वेपथुश्चाधिको भवेत्।।
सरलार्थ - भय से डरे हुए मन वाला आदमी के हाथ और पैर कांपने लगते हैं वाणी का अपने लगती हैं तथा बुक में थूक आने लगता है।
सरलार्थ - भय से डरे हुए मन वाला आदमी के हाथ और पैर कांपने लगते हैं वाणी का अपने लगती हैं तथा बुक में थूक आने लगता है।
तदहम् अस्य आह्वानं करोमि। एवं
सः बिले प्रविश्य मे भोज्यं भविष्यति।
इत्थं विचार्य सिंहः सहसा शृगालस्य आह्वानमकरोत्। सिंहस्य उच्चगर्जन- प्रतिध्वनिना सा गुहा उच्चैः शृगालम्
आह्वयत्। अनेन अन्येऽपि पशवः भयभीताः अभवन्। शृगालोऽपि ततः दूरं पलायमानः इममपठत्-
सरलार्थ- तबमैं उसका आव्हान करता हूं ।इससे वह बिल में प्रवेश करके मेरा भोजन बनेगा। ऐसा विचार करके शेर ने अचानक सियार का आव्हान किया शेरकी ऊंची गर्जना की ध्वनि से सारी गुफा जोर से सियार का आवाज करने लगी इससे सारे पशु भयभीत होकर भागने लगे सियार भी दूर जाकर यह श्लोक पढ़ने लगा-
सरलार्थ- तबमैं उसका आव्हान करता हूं ।इससे वह बिल में प्रवेश करके मेरा भोजन बनेगा। ऐसा विचार करके शेर ने अचानक सियार का आव्हान किया शेरकी ऊंची गर्जना की ध्वनि से सारी गुफा जोर से सियार का आवाज करने लगी इससे सारे पशु भयभीत होकर भागने लगे सियार भी दूर जाकर यह श्लोक पढ़ने लगा-
अनागतं यः कुरुते स शोभते
स शोच्यते यो न करोत्यनागतम्।
वनेऽत्र संस्थस्य समागता जरा
बिलस्य वाणी न कदापि मे श्रुता।।
सरलार्थ जो आने वाली खतरे के बारे में पहले सोचता है उसे उसे और उसका अविवाहित नहीं होता। इस वन में रहकर मैं बूढ़ा हो गया हूं मैंने कभी भी बिल की वाणी नहीं सुनी।।
सरलार्थ जो आने वाली खतरे के बारे में पहले सोचता है उसे उसे और उसका अविवाहित नहीं होता। इस वन में रहकर मैं बूढ़ा हो गया हूं मैंने कभी भी बिल की वाणी नहीं सुनी।।
शब्दार्थाः
कसि्ंमश्चित् (कस्मिन्+चित्) - किसी (वन में)
क्षुधार्तः (क्षुधा+आर्तः) - भूख से व्याकुल
अन्तरे - बीच में
निगूढो भूत्वा - छिपकर
सिंहपदपद्धतिः - शेर के पैरों के चिह्न
रवः - शब्द/आवाज
यावत्-तावत् - जबतक, तबतक
समयः - शर्त
बाह्यतः - बाहर से
यदि-तर्हि - अगर, तो
तच्छ्रुत्वा (तत्+श्रुत्वा) - वह सुनकर
भयसन्त्रस्तमनसाम् - डरे हुए मन वालों का
हस्तपादादिकाः (हस्तपाद+आदिकाः) - हाथ-पैर आदि से सम्बन्धित
वेपथुः - कम्पन
भोज्यम् - भोजन योग्य (पदार्थ)
सहसा - एकाएक
अनागतम् - आने वाले (दुःख) को
शोच्यते - चिन्तनीय होता है
संस्थस्य - रहते हुए का/के/की
जरा - बुढ़ापा
कुरुते/करोति - (निराकरण) करता है
बिलस्य - बिल का (गुफा का)
अभ्यासः
1. उच्चारणं कुरुत-
कसि्ंमश्चित् | विचिन्त्य | साध्विदम् |
क्षुधार्तः | एतच्छ्रुवा | भयसन्त्रस्तमनसाम् |
सिंहपदपद्धतिः | समाह्वानम् | प्रतिध्वनिः |
2. एकपदेन उत्तरं लिखत-
(क) सिंहस्य नाम किम्?
(ख) गुहायाः स्वामी कः आसीत्?
(ग) सिंहः कस्मिन् समये गुहायाः समीपे आगतः?
(घ) हस्तपादादिकाः क्रियाः केषां न प्रवर्तन्ते?
(ङ) गुहा केन प्रतिध्वनिता?
Answer:
(क) खरनखर:।
(ख) दधिपुच्छ: शृगाल:।
(ग) सूर्यास्तसमये।
(घ) भयसन्त्रस्तमनसाम्
(ङ) सिंहस्य गर्जनेन
3. पूर्णवाक्येन उत्तरत-
(क) खरनखरः कुत्र प्रतिवसति स्म?
(ख) महतीं गुहां दृष्ट्वा सिंहः किम् अचिन्तयत्?
(ग) शृगालः किम् अचिन्तयत्?
(घ) शृगालः कुत्र पलायितः?
(ङ) गुहासमीपमागत्य शृगालः किं पश्यति?
(च) कः शोभते?
Answer:
(क) खरनखर: वने प्रतिवसति स्म।
(ख) महतीं गुहां दृष्ट्वा सिंह: अचिन्तयत – “नूनम् एतस्यां गुहायां रात्रौ कोऽपि जीव: आगच्छति। अत: अत्रैव निगूढ़ो भूत्वा तिष्ठामि।”
(ग) शृगाल: अचिन्तयत् – “अहो विनष्टोऽस्मि। नूनम् अस्मिन् बिले सिंह: अस्तीति तर्कयामि। तत् किं करवाणि?”
(घ) शृगाल: गुहाया: दूरं पलायित:।
(ङ) सिंह: शृगालस्य आह्वानमकरोत् यतोहि − मम् आह्वान श्रुत्वा स: बिले प्रविश्य मे भोज्यं भविष्यति।
(च) अस्यां कथायां शृगालस्य चातुर्यं निरूपितं यतोहि स स्वयुक्तिया सिंहस्य चाले विफलं अकरोत।
4. रेखांकितपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत-
(क) क्षुधार्तः सिंहः कुत्रापि आहारं न प्राप्तवान्?
(ख) दधिपुच्छः नाम शृगालः गुहायाः स्वामी आसीत्?
(ग) एषा गुहा स्वामिनः सदा आह्वानं करोति?
(घ) भयसन्त्रस्तमनसां हस्तपादादिकाः क्रियाः न प्रवर्तन्ते?
(ङ) आह्वानेन शृगालः बिले प्रविश्य सिंहस्य भोज्यं भविष्यति?
Answer:
(क) खरनखर: वने प्रतिवसति स्म।
(ख) महतीं गुहां दृष्ट्वा सिंह: अचिन्तयत – “नूनम् एतस्यां गुहायां रात्रौ कोऽपि जीव: आगच्छति। अत: अत्रैव निगूढ़ो भूत्वा तिष्ठामि।”
(ग) शृगाल: अचिन्तयत् – “अहो विनष्टोऽस्मि। नूनम् अस्मिन् बिले सिंह: अस्तीति तर्कयामि। तत् किं करवाणि?”
(घ) शृगाल: गुहाया: दूरं पलायित:।
(ङ) सिंह: शृगालस्य आह्वानमकरोत् यतोहि − मम् आह्वान श्रुत्वा स: बिले प्रविश्य मे भोज्यं भविष्यति।
(च) अस्यां कथायां शृगालस्य चातुर्यं निरूपितं यतोहि स स्वयुक्तिया सिंहस्य चाले विफलं अकरोत।
5. घटनाक्रमानुसारं वाक्यानि लिखत-
(क) गुहायाः स्वामी दधिपुच्छः नाम शृगालः समागच्छत्।
(ख) सिंहः एकां महतीं गुहाम् अपश्यत्।
(ग) परिभ्रमन् सिंहः क्षुधार्तो जातः।
(घ) दूरस्थः शृगालः रवं कर्त्तुमारब्धः।
(ङ) सिंहः शृगालस्य आह्वानमकरोत्।
(च) दूरं पलायमानः शृगालः श्लोकमपठत्।
(छ) गुहायां कोऽपि अस्ति इति शृगालस्य विचारः।
Answer:
एतानि उपयुक्त क्रम निम्न सन्ति:-
(क) परिभ्रमन् सिंह: क्षुधार्तो जात:।
(ख) सिंह: एकां महतीं गुहाम् अपश्यत्।
(ग) गुहाया: स्वामी दधिपुच्छ: नाम शृगाल: समागच्छत्।
(घ) गुहायां कोऽपि अस्ति इति शृगालस्य विचार:।
(ङ) दूरस्थ: शृगाल: रवं कर्त्तुमारब्ध:।
(च) सिंह: शृगालस्य आह्वानमकरोत्।
(छ) दूरं पलायमान: शृगाल: श्लोकमपठत्।
6. यथानिर्देशमुत्तरत-
(क) ‘एकां महतीं गुहां दृष्ट्वा सः अचिन्तयत्’ अस्मिन् वाक्ये कति विशेषणपदानि, संख्यया सह पदानि अपि लिखत?
(ख) तदहम् अस्य आह्वानं करोमि- अत्र ‘अहम्’ इति पदं कस्मै प्रयुक्तम्?
(ग) ‘यदि त्वं मां न आह्वयसि’ अस्मिन् वाक्ये कर्तृपदं किम्?
(घ) ‘सिंहपदपद्धतिः गुहायां प्रविष्टा दृश्यते’ अस्मिन् वाक्ये क्रियापदं किम्?
(ङ) ‘वनेऽत्र संस्थस्य समागता जरा’ अस्मिन् वाक्ये अव्ययपदं किम्?
7. मञ्जूषातः अव्ययपदानि चित्वा रिक्तस्थानानि पूरयत-
कश्चन दूरे नीचैः यदा तदा यदि तर्हि परम् च सहसा
एकस्मिन् वने .................. व्याधः जालं विस्तीर्य .................. स्थितः। क्रमशः आकाशात् सपरिवारः कपोतराजः .................. आगच्छत्। .................. कपोताः तण्डुलान् अपश्यन् .................. तेषां लोभो जातः। परं राजा सहमतः नासीत्। तस्य युक्तिः आसीत् .................. वने कोऽपि मनुष्यः नास्ति। कुतः तण्डुलानाम् सम्भवः। .................. राज्ञः उपदेशम् अस्वीकृत्य कपोताः तण्डुलान् खादितुं प्रवृत्ताः जाले .................. निपतिताः। अतः उक्त्तम् ‘.............. विदधीत न क्रियाम्’।
Answer:
एकस्मिन् वने कश्चन व्याध: जालं विस्तीर्य दूरे स्थित:। क्रमश: आकाशे सपरिवार: कपोतराज: चित्रग्रीव: निर्गत:। तदा तण्डुलकणानामुपरि कपोतानां लोभो जात:। परन्तु राजा तत्र सहमत: नासीत्। तस्य युक्ति: आसीत् यदि निर्जने वने कोऽपि मनुष्यो नास्ति तर्हि कुतो वा तण्डुलकणानां सम्भव:? यदा राज्ञ: उपदेशमस्वीकृत्य ते नीचै: आगता, तदा जाले निपतिता:। अत: उक्तम् ‘ सहसा विदधीत न क्रियाम्’।
योग्यता-विस्तारः
ग्रन्थ-परिचय - विष्णुशर्मा ने राजा अमरशक्ति के मूर्ख पुत्रों को कुशल राजनीतिज्ञ बनाने के उद्देश्य से कथाओं के संकलन के रूप में पञ्चतन्त्र की रचना की थी। इसमें मित्रभेद, मित्रसम्प्राप्ति, काकोलूकीय, लब्धप्रणाश तथा अपरीक्षित-कारक; इन पाँच खण्डों में कुल 70 कथाएँ तथा 900 श्लोक हैं। श्लोकों में प्रायः तर्कपूर्ण नीतिश्लोक प्रयुक्त हैं। पञ्चतन्त्र का अनुवाद चतुर्थ शताब्दी के आस-पास ईरान की पहलवी भाषा में हुआ था। इसी के आधार पर विदेशी भाषाओं में इसके अनेक अनुवाद हुए।
‘काकोलूकीयम्’ पञ्चतन्त्र का तृतीय तन्त्र है। इसका नाम काक और उलूक की मुख्य कथा के कारण पड़ा है।
व्याकरणम्
अव्यय - संस्कृत में दो प्रकार के शब्द हैं-विकारी तथा अविकारी। विकारी शब्द परिवर्तनशील हैं। संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया शब्द विकारी हैं। जैसे-बालकः, सः, शुक्लः, गच्छति। अविकारी शब्द अव्यय कहलाते हैं। इनके रूप कभी नहीं बदलते। जैसे-अत्र, अधुना, अपि।
अव्ययों के भी रूढ और यौगिक दो रूप मिलते हैं। रूढ अव्ययों के खण्ड नहीं होते जैसे-च, अपि, वा, तु, खलु, न इत्यादि। यौगिक अव्ययों के खण्ड होते हैं ये कृत्, तद्धित या समास के रूप में होते हैं। कृत् से बने अव्यय हैं-गत्वा, गन्तुम् इत्यादि। तद्धित से बने अव्यय हैं-सर्वथा, एकदा, तत्र, इत्थम्, कथम् इत्यादि। समास के रूप में अव्यय हैं-प्रतिदिनम्, यथाशक्ति इत्यादि।
प्रस्तुत पाठ में कदाचित्, इतस्ततः (इतः + ततः), न, दृष्ट्वा, नूनम्, अपि, तर्हि, अत्र, एव (अत्रैव), भूत्वा, इति, च, बहिः, अहो, एवम्, विचिन्त्य, सह, तदा, यदि, अथ, श्रुत्वा, सदा, परन्तु (परम् + तु), प्रविश्य, सहसा, कदापि (कदा + अपि) ये अव्यय हैं। इनकी उपर्युक्त कोटियों में पहचान की जा सकती है।
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